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यह एक राष्ट्रीय विडम्बना ही है कि चुनाव से पहले और बाद में और चुनाव के दौरान भी हम देश में लोकतंत्र पर गर्व व्यक्त करते हैं और इसकी दुहाई भी देते हैं परन्तु क्या यह सच नहीं है कि हम चुनाव कई चुनावी कमियों और खामियों के रहते हुए लड़ते और जीतते हैं. इसका यह आशय कत्तई नहीं है कि हमारे लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कोई दोष है पर हमें यह मानने में भी कोई संकोच नहीं है कि कुछ कोशिशों के बावजूद हमारी चुनाव व्यवस्था में सुधार और परिवर्तन की काफी गुंजाइश और ज़रूरत है. राजनैतिक दलों और नेताओंको को इस पहलु पर गम्भारता से विचार करने के अलावा यह भी देखना और समझना होगा कि एक मजबूत लोकतंत्र होते हुए भी हम लगातार बढ़ते आर्थिक, सामाजिक और नैतिक अपराधों और अव्यवस्थाओं पर रोक क्यों नहीं लगा पा रहे हैं. समय से और समय रहते इस और ध्यान नहीं दिया जायेगा तो लोकतंत्र की जड़ें कमज़ोर होने लगेगी और हमारा गर्व हमारे दर्प का रूप ले लेगी.
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